अफगानिस्तान की आखिरी उम्मीद अमरुल्ला सालेह की कहानी…कैसे एक गोरिल्ला फाइटर बना ‘कार्यवाहक राष्ट्रपति’

जब समूचा अफगानिस्तान तालिबान के लाल रंग में रंग चुका है, तब भी एक जगह ऐसी है जिसको तालिबान जीत नहीं पाया है. जिस पर तालिबान कब्जा नहीं कर पाया, जिस तक पहुंच नहीं पाया, जिसका रंग अब भी लाल नहीं हुआ. आखिरी उम्मीद के तौर पर एक प्रांत ऐसा है जो अंतिम सांस तक तालिबानियों को टक्कर देने के लिए तैयार है, वो प्रांत कौन सा है ?
अफगानिस्तान में अब भी एक नेता ऐसा है, जो वहां तालिबान के खिलाफ में डटा हुआ है और कहता है कि कुछ हो जाए तालिबानियों के सामने सिर नहीं झुकाऊंगा. ये अफगानिस्तान के उप राष्ट्रपति अमरुल्ला सालेह हैं. अफगानिस्तान के इकलौते बड़े नेता जो कहते हैं, सीने पर गोली खा लेंगे लेकिन सिर नहीं झुकाएंगे.
ऐसे में सवाल सबके मन में है, कि अच्छे-अच्छे वॉरलॉड, अच्छे-अच्छे अफगान लड़ाके, अच्छे-अच्छे नेता सबकुछ छोड़कर भाग गए तो अमरुल्ला सालेह को इतनी हिम्मत कौन दे रहा है ?उपराष्ट्रपति सालेह के पीछे वो कौन सी ताकत खड़ी है, जो उनके कदम डिगने नहीं दे रही है.
इस सवाल का जवाब है पंजशीर, यह वो जगह है जहां के पहाड़ दहाड़ कर कहते हैं तालिबान मजूर नहीं. जहां की पंजशीर नदी पुकार कहती है, तालिबान की गुलामी कुबूल नहीं, जहां का इतिहास कहता है तालिबान के आगे झुकेंगे नहीं. क्योंकि ये अफगान इतिहास के सबसे धाकड़ गुरिल्ला लड़ाके रहे अहमद शाह मसूद का पंजशीर प्रांत है.
वो अहमद शाह मसूद जिसने सोवियत संघ की तोपों की नाल को अपने जुनून के दम पर मोड़ दिया था. अहमद शाह मसूद ने अपनी गुरिल्ला तकनीक से तालिबान को काबुल में झुका दिया था, काबुल से एक वक्त के लिए भगा दिया था.
पंजशीर काबुल से 150 किलोमीटर दूर पंजशीर को तालिबान कभी नहीं जीत पाया. तालिबान 1998 में भी पंजशीर पर कब्जा नहीं कर पाया था. 1995 में अहमद शाह मसूद के नेतृत्व में तालिबान को काबुल में हराया गया था. तालिबान अहमद शाह मसूद को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानता था. 9/11 से ठीक दो दिन पहले अहमद शाह मसूद की फिदायीन हमले में हत्या कर दी गई थी.
तालिबान से लोहा लेने का जज्बा अहमद शाह मसूद पंजशीर के एक-एक कण भर गए और अब उनके बेटे अहमद मसूद और उपराष्ट्रपति अमरुल्ला सालेह को पंजशीर में देखा जा रहा है. हथियारबंद लड़ाकों के साथ उपराष्ट्रपति अमरुल्ला सालेह और अहमद मसूद दोनों ही पंजशीर को तालिबान के खिलाफ लड़ाई में तैयार करने में जुटे हैं. अपने लड़ाकों में जान भरने में लगे हैं, तालिबान को हराने के लिए लगातार बैठकें चल रही हैं.
इस बीच उपराष्ट्रपति अमरुल्ला सालेह ने ट्वीट कर लिख दिया है, ”मैं तालिब आतंकवादियों के आगे कभी नहीं, कभी भी और किसी भी परिस्थिति में नहीं झुकूंगा. मैं अपने नायक अहमद शाह मसूद, कमांडर, लेजेंड और गाइड की आत्मा और विरासत के साथ कभी विश्वासघात नहीं करूंगा. मैं उन लाखों लोगों को निराश नहीं करूंगा जिन्होंने मेरी बात सुनी. मैं तालिबान के साथ कभी भी एक छत के नीचे नहीं रहूंगा. कभी नहीं.”
अफगानिस्तान में रहकर कोई इस तरह की चुनौती तालिबान को दे रहा है तो कुछ तो बात होगी. क्योंकि जिस तालिबान के आगे अमेरिका ने हार मान ली, जिसके आगे तमाम अफगानी सैनिकों ने सरेंडर कर दिया. लेकिन आखिरी उम्मीद के तौर पर अमरुल्ला सालेह अब भी डटे हैं. अमरुल्ला सालेह अफगानिस्तान के हीरो लड़ाका अहमद शाह मसूद के शार्गिर्द रहे हैं.
पंजशीर की घाटी से काबुल तक का सफर करने वाले सालेह अब अंतिम उम्मीद के तौर पर देखा जा रहा है. उनके पास भी मुजाहिदों की एक फौज है, जो पंजशीर की घाटियों की निगेबां है, उनके साथ अहमद शाह मसूद के बेटे अमहद मसूद हैं, जिनके पास ट्रेंड लड़ाके हैं. इन्हीं के दम पर तालिबान को ना सिर्फ अंतिम लड़ाई की चुनौती दी जा रही है.
अमरुल्ला सालेह ने खुद को अफगानिस्तान का अब राष्ट्रपति घोषित कर दिया और ट्वीट कर लिखा, ”अफगानिस्तान के संविधान के अनुसार, राष्ट्रपति की अनुपस्थिति, भागने, इस्तीफा या मृत्यु के बाद उपराष्ट्रपति कार्यवाहक राष्ट्रपति बन जाता है. मैं वर्तमान में अपने देश के अंदर हूं और वैध देखभाल करने वाला राष्ट्रपति हूं. मैं सभी नेताओं से उनके समर्थन और आम सहमति के लिए संपर्क कर रहा हूं.”
इसका मतलब है कि अभी भी एक लौ है जो अफगानिस्तान में लोकतंत्र के लिए फड़फड़ा रही है. पंजशीर की घाटी में कुछ लड़ाके हैं जो तालिबान से दो-दो हाथ करने को तैयार हैं. तालिबान ने भले ही पूरा अफगानिस्तान जीत लिया हो लेकिन यहां जीतना आसान नहीं है क्योंकि पंजशीर घाटी चारों तरफ हिंदुकुश के पहाड़ों से घिरी हुई है. पंजशीर की आबादी करीब एक लाख लोगों की है. अफगान योद्धा अहमद शाह मसूद की यादें वहां के चप्पे-चप्पे पर हैं.
शाह मसूद के बेटे अमहद मसूद ने भी ऐलान कर दिया कि कायरों की तरह भागने से अच्छा है सीने पर गोली झेल जाएंगे. दावा है कि खुद को राष्ट्रपति घोषित कर चुके अमरुल्ला सालेह अभी महमद मसूद के साथ पंजशीर में ही डेरा डाले हुए हैं.
सालेह ना सिर्फ गुरिल्ला लड़ाका रहे हैं, बल्कि वो अफगानिस्तान के इंटेलीजेंस चीफ भी रहे हैं. तालिबानी उन्हें भेड़ियों की तरह तलाश कर रहे हैं, वो उन्हें जिंदा चबा जाना चाहते हैं लेकिन शेर के माफिक सालेह भी कह रहे हैं. जगं होगी तो आमने-सामने की होगी. आखिरी उम्मीद…आखिरी बूंद तक होगी.