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गुजरात: हिंदुत्व की प्रयोगशाला में पीएम मोदी की ‘टीना’ थ्योरी के आगे हवा में उड़ गए ‘खाम-कोकम’ जैसे फॉर्मूले!

गुजरात विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है. तारीखों का ऐलान किसी भी वक्त हो सकता है. बीजेपी इस राज्य में 27 सालों से सत्ता में है. राज्य में दो ध्रुवीय चुनाव होते रहे हैं जिसमें बीजेपी और कांग्रेस ही मुख्य प्रतिद्वंदी रही हैं.

कई छोटी पार्टियां भी मैदान में हाथ आजमाती रही हैं लेकिन उनका असर कुछ सीटों तक ही सीमित रहा है. हिंदुत्व की प्रयोगशाला कहे जाने वाले गुजरात में कभी कांग्रेस का भी परचम लहराता रहा है. माधव सिंह सोलंकी की अगुवाई में साल 1985 में बनी कांग्रेस की सरकार का रिकॉर्ड आज तक बीजेपी नहीं तोड़ पाई है. दरअसल इसके पीछे कांग्रेस का एक समीकरण था.

कांग्रेस का KHAM का फैक्टर
साल था 1985…इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस ‘शहादत की लहर’ पर सवार थी. उधर गुजरात में कांग्रेस के पास माधव सिंह सोलंकी जैसा नेता था. इससे पहले सोलंकी मुख्यमंत्री रहते हुए आरक्षण का एक दांव भी खेल चुके थे. सोलंकी सरकार ने पिछड़ी जातियों का आरक्षण 10 फीसदी से बढ़ाकर 28 कर दिया और इनमें कई अन्य जातियां भी शामिल कर दीं. ओबीसी आरक्षण के दायरे में जहां 82 जातियां थीं वहां अब 104 हो गई थीं. इसके बाद उन्होंने KHAM (क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम) का फॉर्मूला लागू किया. इन जातियों को खूब लुभाया और नतीजा ये रहा कि कांग्रेस ने 182 में 149 सीटें जीत लीं.

चिमन भाई पटेल लाए KOKAM थ्योरी

KHAM के फॉर्मूले पर सवार कांग्रेस सत्ता को पाई गई थी लेकिन आरक्षण के खिलाफ गुजरात में आंदोलन शुरू हो चुका था. बाकी जातियां गोलबंद हो रही थीं. इसी बीच जनता दल नेता और पूर्व मुख्यमंत्री चिमन भाई पटेल KOKAM यानी कोकम थ्योरी लेकर आ गए. इस फॉर्मूले में कोली, कणबी और मुस्लिम शामिल थे. बता दें कि गुजरात के सौराष्ट्र और दक्षिण गुजरात में कोली समुदाय का बड़ा वोट कांग्रेस के हाथ से छिटक गया.

1990 के चुनाव में जनता दल इस राज्य में सबसे बड़ी पार्टी बन गई. उसको पाटीदारों का भी वोट मिला था. बीजेपी दूसरे नंबर पर थी जिसमें पाटीदार वोटों का बड़ा हाथ था. कभी 149 सीटें पाने वाली कांग्रेस 37 पर ही सिमट गई थी. जनता दल और बीजेपी ने मिलकर सरकार बनाई.

मोदी ‘TINA’ थ्योरी के आगे सब उड़ गए
अयोध्या में राम मंदिर के लिए शुरू हुए आंदोलन के साथ ही गुजरात हिंदुत्व की प्रयोगशाला बन गया था. इसके सबसे बड़े पोस्टर ब्वॉय बने नरेंद्र मोदी. साल 2001 नरेंद्र मोदी को गुजरात की कमान मिली. राजनीति में पीएम मोदी के उदय के बाद विपक्ष और गुजरात में बीजेपी के अंदर भी तमाम नेता उनके आगे बौने होते चले गए. उनके कार्यकाल में राष्ट्रवाद, गुजराती अस्मिता और औद्योगिकीकरण को बढ़ावा मिलता चला गया.

गुजरात में आर्थिक तरक्की के साथ-साथ मुख्यमंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी की हिंदूवादी नेता के साथ-साथ एक सख्त प्रशासक और विकासवादी छवि बनती चली गई. साल 2001 से लेकर 2014 तक गुजरात में ‘TINA’ (There Is No Alternative) यानी ‘ मोदी का कोई विकल्प नहीं’ वाली हालात बन गए. इन 15 सालों में कांग्रेस मोदी के सामने कोई ऐसा चेहरा नहीं उतार पाई जो उनको टक्कर दे सके.

साल 2017 के चुनाव में भी इस फॉर्मूले का ही बीजेपी को सहारा लेना पड़ा. क्योंकि ये पहला चुनाव था जिसमें मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए दावेदार नरेंद्र मोदी नहीं थे. इसका नतीजा ये रहा कि कांग्रेस ने बीजेपी को टक्कर देने की स्थिति में आ गई. चुनाव के आखिरी दो चरणों में प्रचार की कमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ही संभालनी पड़ी. और वोट भी उनके ही चेहरे पर मिला. हालांकि पार्टी सिर्फ 99 सीटें ही जीत पाई थी. जबकि कमजोर दिख रही और बिना सीएम पद के चेहरे के उतरी कांग्रेस ने 77 सीटें जीती थीं. हालांकि इस चुनाव में पाटीदार आंदोलन भी कांग्रेस के पक्ष में बड़ा फैक्टर रहा है.

अब OTP फैक्टर पर नजर
साल 2019 के चुनाव में OTP फैक्टर सामने आया है जिस पर बीजेपी और कांग्रेस दोनों की ही नजर है. दरअसल साल 2001 से लेकर 2022 तक बीजेपी भले ही चुनाव जीतती आ रही हो लेकिन सिर्फ 2002 को छोड़ दिया जाए तो बीजेपी सीटें और वोट शेयर दोनों घटता चला गया है. साल 2017 के चुनाव में बीजेपी 100 सीटें नहीं भी जीत पाई थी. हालांकि इसी दौरान साल 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी ने क्लीन स्वीप भी किया है. विधानसभा चुनाव में उसकी मुश्किलें बढ़ जाती हैं.

बात करें ओटीपी फैक्टर की तो इस फॉर्मूले में ओबीसी, ट्राइबल यानी आदिवासी और पाटीदार शामिल हैं. माधव सिंह सोलंकी के खाम फॉर्मूले में पाटीदारों के लिए जगह नहीं थी. इसी तरह ओबीसी भी इसमें शामिल थे.

बाद में बीजेपी ने ओबीसी और पाटीदारों को गुजरात में अपना कोर वोट बैंक बना लिया. आरएसएस के वनवासी कार्यक्रमों के जरिए पार्टी ने आदिवासियों के बीच भी जगह बनाई. जो कि कभी कांग्रेस के साथ थे. हालांकि 2017 में बड़ा हिस्सा फिर से कांग्रेस की ओर गया है.

इसी तरह कांग्रेस ने पाटीदारों के बीच भी जगह बनाने की कोशिश की है. साल 2017 में पाटीदारों का ठीकठाक कांग्रेस को मिला है. बीजेपी ने ‘हिंदुत्व’ के एजेंडें के साथ-साथ आदिवासियों के बीच पैठ बनाई लेकिन कांग्रेस ने नई जातियों को जोड़ने के दौरान पुराने वोटबैंक को संभालने में नाकाम साबित हुई. पटेलों को लुभाने में वो क्षत्रिय और मुसलमानों के बीच अपना आधार खोती रही. दोनों ही उसके खाम फॉर्मूले का हिस्सा रहे हैं.

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